Thursday, March 23, 2017

कल्पनाओं से परे


कल्पनाओं से परे


कल्पनाओं से परे

उफनती मौजों सी
नदी सा बलखाती हुई
माना कि घाटी से उतरी हो
और मेरे समतल जिस्म पे
गहरे कटाव बनाते हुए
थिरकती जाती हो
इस संगीत पर गुलाब की कली सी
और होने लगा हूँ मैं
अब उपजाऊ मिट्टी सा
कि अब फुटेंगें मेरे जहन से
तेरे इश्क़ के फुल
और पैदा होंगे
बाँवरे भँवरे
और न जाने कितने भँवरों कि
कज़ा है
इश्क वालों कि सजा है
कि अब निकलने लगी
मेरे जिस्म से सारी सरगम
 जो बेकरार है
तुम्हे आगोश में लेने को
इश्क अब ‎प्रकृति सा है मेरा
और एक ‎प्राक्रतिक हिस्सा हो तुम

प्रिय शर्मा 

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