कल्पनाओं से परे
कल्पनाओं से परे
उफनती मौजों सी
नदी सा बलखाती हुई
माना कि घाटी से उतरी हो
और मेरे समतल जिस्म पे
गहरे कटाव बनाते हुए
थिरकती जाती हो
इस संगीत पर गुलाब की कली सी
और होने लगा हूँ मैं
अब उपजाऊ मिट्टी सा
कि अब फुटेंगें मेरे जहन से
तेरे इश्क़ के फुल
और पैदा होंगे
बाँवरे भँवरे
और न जाने कितने भँवरों कि
कज़ा है
इश्क वालों कि सजा है
कि अब निकलने लगी
मेरे जिस्म से सारी सरगम
जो बेकरार है
तुम्हे आगोश में लेने को
इश्क अब प्रकृति सा है मेरा
और एक प्राक्रतिक हिस्सा हो तुम
प्रिय शर्मा
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